कासगंज का एक छोटा सा गांव हैं निजामपुर। आसपास के गांवों के ही बहुत से लोगों को इसका नाम तक नहीं पता। हां, ये सबको पता है कि यहां एक दलित दूल्हा घोड़ी पर चढ़कर बारात लेकर आया था। वहां जाने का रास्ता बताते हुए पड़ोस के गांव की एक अम्मा कहती हैं, 'अच्छा वो घोड़ी वाले दूल्हा की बारात जहां आई थी, अरे तब तो पुलिस ही पुलिस थी।'
गांव की तरफ जा रही एक पतली सड़क से लगे खेत में सतपाल सिंह अपने परिवार के साथ बाजरे की फसल काटते हुए मिले। दो साल पहले जुलाई 2018 में जब उनकी बेटी की बारात आनी थी तो गांव के ठाकुरों ने दलितों के खेतों का पानी बंद कर दिया था। तब उनकी फसलें सूख गईं थीं। उनके दामाद संजय जाटव ने घोड़ी पर चढ़कर बारात लाने की जिद पकड़ ली थी, जिसे ठाकुरों ने अपनी आन-बान के खिलाफ मान लिया था। अदालत के दखल के बाद संजय जाटव पुलिस सुरक्षा में घोड़ी पर चढ़कर बारात लेकर आए। उस दिन कई ठाकुर गांव से ही चले गए थे।
सतपाल सिंह कहते हैं, 'तब तो बंदी कर दी थी। खेतों में पानी भी नहीं दिया था। गांव के ठाकुर कहते थे, घोड़ी पर बारात चढ़ने नहीं देंगे। ना पहले कभी चढ़ी है, ना आगे चढ़ेगी और अगर बारात घोड़ी पर चढ़ी तो मारा तोड़ी होगी। सरकार ने बारात चढ़वाई और हमारा सहयोग भी किया। एक साल तक हमारे लिए गांव में सुरक्षा भी रही।'
सतपाल का बेटा बिट्टू जाटव कहता है, 'हमारा ज्यादा बोलना सही नहीं है। अब गांव में सब शांति है, किसी तरह का कोई तनाव या विवाद नहीं है। सभी प्यार से रह रहे हैं।' तो क्या इसके बाद गांव में कुछ बदला? इस पर बिट्टू जाटव कहते हैं, 'बड़े-बड़े अधिकारी गांव आए, लेकिन जिस तरह का विकास होना था, नहीं हुआ। कई लोगों के पास रहने लायक घर नहीं है। शौचालय नहीं है। पक्की सड़कें नहीं हैं। ये सब काम गांव में होने चाहिए थे।'
गांव में घुसते ही दलितों के 10-12 घर हैं। कुछ कच्चे हैं और कुछ बस बिना प्लास्टर की पक्की दीवारों पर छत डालकर बना लिए गए हैं। एक घर के बाहर एक दुबली-पतली महिला गोद में कुपोषित बच्चा लिए खड़ी है। मुझे देखते ही औरतें घरों से बाहर निकल आती हैं। अब माहौल कैसा है, इस पर एक दलित महिला कहती है, 'पहले ठाकुर शराब पीकर आते थे, चमरा-पमरा कहते थे। अब कुछ नहीं कहते हैं, बढ़िया तरह से रहते हैं। जब से बारात चढ़ी है हमारी, पहले जैसी परेशानी नहीं है।'
वो कहती हैं, 'पहले तो रास्ते में मारते थे, घर में मारते थे, बालक-बच्चे खेत में मिल जाते थे तो वहां घेर लेते थे, थप्पड़ भी मार देते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं है। हम साफ कहते हैं, अब जाटव भी कमजोर नहीं हैं। अगर अब वो मारेंगे तो खुद भी थप्पड़ खाएंगे। अब पहले वाली बात नहीं है। कुएं से आवाज कुआं जैसी ही आएगी। अब पुराने बुड्ढे नहीं हैं, नए लड़के हैं। अगर यहां नहीं रहने देंगे, कहीं और जाकर खा-कमा लेंगे, लेकिन अब झुकेंगे नहीं।'
दलितों के छोटे घरों के बगल ठाकुरों के बड़े घर और भी बड़े लगते हैं। जब मैं यहां पहुंची तो ठाकुर समुदाय में एक जवान व्यक्ति की बीमारी से मौत हो गई थी। गांव में गम का माहौल था, जिसमें दलित भी शामिल थे। जैसे-जैसे मौत की खबर गांव में फैलती है, लोग अपने काम-धंधे बंद कर देते हैं। खेतों में काम कर रही दलित महिलाएं भी गांव लौट आती हैं।
दलितों के मोहल्ले में एक कमरे के एक छोटे से घर में बाहर टीन पड़ी है। बरामदे में पड़ी चारपाई में चादर के झूले में एक दुधमुंहा बच्चा झूल रहा है। इस घर में रहने वाली सुनीता कहती हैं, 'सरकार की ओर से गैस सिलेंडर मिला है। शौचालय भी जैसा-तैसा ही सही, पर बना है, लेकिन घर नहीं मिला। कई बार लिखा-पढ़ी हुई, लेकिन कुछ हुआ नहीं।'
बारात को लेकर हुए विवाद गांव की प्रधान कांति देवी कहती हैं, 'कुछ लोगों ने विरोध किया था, लेकिन प्रशासन के दखल के बाद समझाकर मामला शांत करा दिया गया था। बेटी चाहे दलित की हो या ठाकुर की, सभी बेटियां बराबर हैं और जिसके जैसे दिल चाहे, वो वैसे अपनी बारात निकाले। जाटव हो या मेहतर, सबकी बारात धूमधाम से निकले।'
गांव के माहौल के बारे में बात करते हुए कांति देवी कहती हैं, 'जब विवाद था, तब था, अब सब बढ़िया है। ठाकुरों के बिना दलितों का काम नहीं चल सकता और दलितों के बिना ठाकुरों का। सब एक-दूसरे पर निर्भर हैं। हमें तो सब बढ़िया दिख रहा है, लेकिन किसी के दिल में कुछ और हो तो कह नहीं सकते।'
यहां से करीब 30 किलोमीटर दूर हाथरस जिले में संजय जाटव का गांव है। दलित दूल्हे के नाम से चर्चित संजय जाटव को अब सब जानते हैं। स्थानीय राजनीति में सक्रिय संजय इन दिनों अपने गांव बसई में आंबेडकर पार्क का उद्घाटन कराने में जुटे हैं।
आंबेडकर की मूर्ति के नीचे खड़े होकर वो कहते हैं, 'आजादी के बाद से कोई दलित कासगंज के निजामपुर में घोड़ी पर बैठकर बारात लेकर नहीं गया था। जब मैंने बारात चढ़ाने की बात कही तो ठाकुरों ने विरोध किया। मैंने भी घोड़ी चढ़ने की जिद पकड़ ली और घोड़ी चढ़ने के लिए जिला प्रशासन से लेकर जिला अदालत और सुप्रीम कोर्ट तक गया। 6 महीने के संघर्ष के बाद मैं घोड़ी चढ़ा। अब बहुत कुछ बदल गया है।' संजय जब बोल रहे थे, गांव के बच्चे और बूढ़े उन्हें बड़ी गौर से देख रहे थे। मानों कोई नेता बोल रहा हो। वो संविधान और उसमें सभी को मिले बराबरी के अधिकार की बात कर रहे थे।
बसई गांव में संजय जाटव का मोहल्ला भी किसी दूसरे दलित मोहल्ले जैसा ही है। टेढ़ी-मेढ़ी खरंजे की सड़क। खुली बह रहीं गंदी नालियों से लगे छोटे-छोटे घर। कई घरों की तो चारदीवारी तक नहीं है। मैं जब संजय के साथ उनके घर की ओर बढ़ रही थीं, औरतें-बच्चे घरों से झांक-झांक कर देख रहे थे। संजय के चाचा कहते हैं, 'इसने अपना बहुत नाम बना लिया है।' क्या उन्हें संजय के घोड़ी चढ़ने के बाद से किसी तरह का डर लगता है? इस पर वो कहते हैं, 'अब डर नहीं लगता। जो करना था कर लिया, आगे जो होगा देखा जाएगा।'
गांव का एक ठाकुर युवक, जिसके छोटे भाई ने संदिग्ध परिस्थितियों में आत्महत्या कर ली थी, इंसाफ की लड़ाई में मदद मांगने के लिए संजय के घर आया है। संजय उसकी मांग को हर स्तर पर उठाने का भरोसा देते हैं। मैं उस ठाकुर से पूछती हूं, क्या गांव में दलित-ठाकुर अब सब बराबर हैं। वो संजय की ओर देखकर हिचकते हुए कहता है, 'हां, अब सब बराबर ही हैं।'
यह भी पढ़िए :
आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें
from Dainik Bhaskar https://bit.ly/3ebDi3T
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें
WE SHARE YOU THE LATEST NEWS.
YOU CAN COMMENT IN WHAT WAY IT WOULD BE EASIER TO SHARE THE NEWS AND WILL BE MORE COMFORTABLE TO YOU