चीन सीमा पर भगीरथी नदी के किनारे पर उत्तराखंड का हर्षिल गांव बसा है। यहां के लोगों ने 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद बेहद गरीबी देखी। फिर यहां के युवाओं ने दुर्गम पहाड़ियों पर सेब के बाग लगाकर इलाके की तकदीर बदल डाली। आज इस क्षेत्र के 8 गांवों में हर परिवार सेब के कारोबार से जुड़ा है। 10 हजार हेक्टेयर में सेब के बागान हैं, जहां 20500 मीट्रिक टन उत्पादन होता है।
इसमें डेढ़ लाख पेटियां सेब की सबसे उम्दा किस्म गोल्डन और रेड डिलीशियस की होती हैं, जो अमेरिका समेत विभिन्न बाजारों में 10 करोड़ रुपए तक में बिक जाता है। इन गांवों में सेब का छोटा किसान भी सालाना कम से कम पांच लाख रुपए कमाता है। कई ऐसे भी हैं जो देश-विदेश में 25 लाख रुपए तक के सेब बेच लेते हैं।
1962 के पहले तिब्बत के ताकलाकोट में बाजार लगते थे
दराली गांव के किसान सचेंद्र पंवार बताते हैं कि सैकड़ों सालों से हमारे पुरखे भेड़-पालन और ऊनी कपड़े बेचकर आजीविका चलाते थे। 1962 के युद्ध से पहले तक तिब्बत की ताकलाकोट में बाजार लगते थे। खुद मेरे पिता केशर सिंह नेलांग घाटी के रास्ते व्यापार करने तिब्बत जाते थे।
तिब्बती व्यापारी सोना, चांदी, मूंगा, पश्मीना ऊन और चैंर गाय लेकर हर्षिल, बगोरी, नागणी तक आते थे और यहां से ग्रामीण मंडुआ, जौ का आटा, सत्तू, रामा सिराईं पुरोला का लाल चावल, गुड़, दालें, ऊनी वस्त्र आदि सामान ले जाते थे। भारत-चीन युद्ध के बाद ये व्यापार बंद हो गया। इसके बाद पूरे इलाके ने बेहद गरीबी देखी।
1978 में भीषण बाढ़ आई
काश्तकार माधवेन्द्र बताते हैं कि 1978 में इस इलाके में भीषण बाढ़ आई। उस वक्त कुछ ही लोग ही अपने खाने के लिए सेब उगाते थे। लेकिन, बाढ़ के बाद आर्थिक तौर पर टूट चुके लोगों ने देखा कि झाला गांव के राम सिंह का सेब भारतीय सेना ने दस हजार रुपए में खरीद लिया। उस समय यह बड़ी रकम थी।
इस सौदे की खूब चर्चा हुई और लोगों ने सेब के बाग लगाने शुरू हुए। आज यह राज्य का सबसे समृद्ध इलाका है। हमारे बच्चे उत्तरकाशी के स्कूल में पढ़ रहे हैं। मुखवा गांव के सोमेश सेमवाल बताते हैं कि उन्होंने अपने घर पर सेब से बनने वाली चिप्स की मशीन भी लगाई है। वो बताते हैं कि 30% सेब तो पर्यटक ही गांव से खरीद लेते हैं। यहां बुनाई का काम भी होता है। आदमी हो या औरतें, यहां सभी सूत कातते दिख जाएंगे।
ब्रिटिश सेना के अफसर ने शुरू की थी खेती
इस बेल्ट में आजादी से बहुत पहले ब्रिटिश सैन्य अफसर फ्रेडरिक ई विल्सन ने सेब की खेती शुरू की थी। उन्हें उत्तराखंड में पहाड़ी विल्सन के नाम से भी जाना जाता है। 1925 में उन्होंने गोल्डन डिलीशियस और रेड डिलीशियस प्रजाति के सेब के बगीचे लगाए थे। हर्षिल और उसके आसपास की आबादी ने 1960 में इस खेती को अपनाया। राॅबर्ट हचिंसन की किताब द राजा ऑफ हर्षिल में भी विल्सन का वर्णन मिलता है।
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