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शनिवार, 26 सितंबर 2020

हमें ऐसी राजनीति चाहिए जो लोगों के घाव भरे, उन्हें साथ लाए, ताकि हकीकत में एक सुरक्षित और मजबूत समाज बने https://bit.ly/2Gentwo

आज आप जहां भी देखते हैं, आपको राजनीति दिखती है। शिक्षा में राजनीति है। फिल्मों के व्यापार में राजनीति है। नोबेल के पीछे राजनीति है, जो गांधी को नहीं मिलता, लेकिन जिमी कार्टर को मिल जाता है। एनजीओ में भी राजनीति है। योग्य को मैग्सेसे नहीं मिलता, लेकिन चालाक पा लेते हैं। नौकरशाही में राजनीति है। आर्थिक फैसलों के पीछे राजनीति है। गरीबी की भी राजनीति है और संपदा की भी राजनीति है।

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि खुद राजनीति की भी राजनीति है। उनकी राजनीति है जो हम पर शासन करते हैं और उनकी भी राजनीति है जो ऐसा चाहते हैं। बिना राजनीति के आपके बीच विवाद नहीं होंगे। और अगर आपके बीच विवाद नहीं होंगे तो आपके पास लोकतंत्र भी नहीं होगा। जिस लोकतंत्र पर हमें आज इतना गर्व है असल में वह विवाद की राजनीति पर ही आधारित है। लेकिन, अगर आप सोचते हैं कि लोकतंत्र की गैरमौजूदगी विवादों को भी खत्म करती है तो आप गलत हैं।

किसी तानाशाही शासन में भले ही राजनीति उतनी न हो, लेकिन विवाद उतने ही होते हैं, बस आप इन्हें खुले में नहीं देख पाते। इसकी वजह है कि जो सत्ता में होता है वह अपने विरोधियों को आसानी से निपटा देता है। क्या लोकतंत्रों में लोगों को निपटाया नहीं जाता? दोनों में ही बराबर हत्याएं होती हैं। तानाशाही में हम हत्याओं पर चर्चा नहीं करते। लोकतंत्र में हम बहस करते हैं कि कौन सही था, मरने वाला या मारने वाला। लेकिन कुछ भी हत्याओं को नहीं रोकता, क्योंकि सच यह है कि हमें मारना पसंद है।

हम एक-दूसरे को फायदे के लिए मारना पसंद करते हैं। हम दूसरी प्रजातियों को मारना पसंद करते हैं। कई बार भोजन के लिए। अधिकांश, सिर्फ हत्या के प्रति प्रेम की वजह से। हम सील को सिर्फ इसलिए मार देते हैं, क्योंकि वह जाल में छेद कर देती है। हम हिरन को इसलिए मार देते हैं, क्योंकि वे फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं। हम लोमड़ियों का इसलिए शिकार करते हैं, क्योंकि इसमें आनंद आता है।

भारत में तो हम किसी भी जानवर को नुकसान पहुंचाने वाला बताकर उसे मार देते हैं। उदाहरण के लिए नीलगाय। हम ईश्वर के आगे सिर झुकाते हैं, लेकिन हाथियों के कॉरीडोर को नष्ट करके उन्हें शिकार के लिए आसान बना रहे हैं। बंदरों को इसलिए मारा जाता है, क्योंकि हम उन्हें उत्पाती मानते हैं। चूहे और सांप के भी मंदिर हैं, हम वहां प्रार्थना करते हैं और घर जाकर चूहों और नुकसान न पहुंचाने वाले सांपों को मार देते हैं।

राजनेता कई बार घृणित तरीके अपनाते हैं। जैसे झूठे वादे, धोखा- धमकी और गलत वजहों से दंडित करना। राजनीति सत्ता में बने रहने और भारी संपत्ति का दोहन करने का विज्ञान है। तकनीक राजनेता की कपटी साथी और सोशल मीडिया आकर्षक परगामिनी है।

जब मैं छोटा था तो घर में गांधीजी और टैगोर के चित्र लगे थे। कम पैसा होते हुए भी मेरे माता-पिता टैगोर के 23 संस्करण खरीद कर लाए थे। काउंसलेटों ने हमें किताबें भेंट की, जिससे हमारी उनके बेहतरीन साहित्य से पहचान हुई। आज हम इसे सॉफ्ट पावर की राजनीति कहते हैं। लेकिन इसने जहां मुझे हरमन मेलविले और वाल्ट व्हिटमैन से परिचित कराया, वहीं दोस्तोवस्की और मक्सिम गोर्की से भी। येव्तुशेंको की कविताओं से मैंने बाबी यार में हुए नरसंहार के बारे में जाना। मैंने गुलाग पर सोल्झेनित्सिन को पढ़ा। तब अहसास हुआ कि राजनीति का केंद्र तो सत्ता के अत्याचारों का विरोध करने में है।


इसीलिए मैंने पत्रकारिता के लिए कविता को छोड़ दिया। मैं संसद में भी गया, ताकि पता लगा सकूं कि राजनीति क्या कर सकती है, यह भारत को कैसे बदल सकती है। आज जो सत्ता में हैं और हमारी हर समस्या के लिए नेहरू को दोष देते हैं। वे महात्मा को दोष देने की हिम्मत नहीं कर सकते। यह कोई वाम व दक्षिणपंथियों की लड़ाई नहीं है, जितना सरल हम इसे देखते हैं। यह भारत की आत्मा के लिए लड़ाई है।

क्या हम राजनीतिक फायदे के लिए नफरत, धर्म, जाति या धार्मिक पहचान के इस्तेमाल में विश्वास करते हैं? या हम एक सहानुभूतिपूर्ण समाज के लिए लड़ेंगे, जहां पर उम्मीदें लोगों के दिलों पर शासन करती हो न कि नफरत? राजनीति को संभव बनाने की कला होना चाहिए। लेकिन, महामारी में यह हर मोर्चे पर विफल रही है। हमने शासन की बीमारी देखी है। हमने करोड़ों लोगों की जिंदगी को बर्बाद होते देखा, क्योंकि उन्होंने कुछ नहीं किया, जो बदलाव ला सकते थे।

यह समय संभवत: अलग तरह की राजनीति की ओर देखने का है। ऐसी राजनीति जो लोगों के घावों को भरे, उनको साथ लाए, ताकि हकीकत में एक सुरक्षित और मजबूत समाज बने। 73 साल पहले हमने सिर्फ अहिंसा के दम पर आजादी हासिल कर ली थी। वह अहिंसा को हथियार बनाने की कला थी। यह समय भी किसी अन्य राजनीतिक हथियार की खोज का है। ऐसी सरकार चुनने की कला का जो सच में काम करती हो। (ये लेखक के अपने विचार हैं)



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प्रीतीश नंदी, वरिष्ठ पत्रकार व फिल्म निर्माता


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